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Wednesday, April 1, 2015

संभोग से समाधि की ओर_भाग-38 प्रवचन-10

दूसरा सूत्र है—सहज जीवन—जैसे है, है।
लेकिन सहज होना बहुत कठिन है। सहज होना सच में ही बहुत कठिन बात है। क्‍योंकि हम इतने असहज हो गए है कि हमने इतनी यात्रा कर ली है। अभिनय की कि वहां लौट जाना, जहां हमारी सच्‍चाई प्रकट हो जाये, बहुत मुश्‍किल है।
      डॉक्‍टर पर्ल्‍स एक मनोवैज्ञानिक है, जो हिप्पियों का गुरु कहा जा सकता है। एक महिला गई थी वहां। मैंने उससे कहा था कि जरूर उस पहाड़ी पर हो आना, 2-4दिन रूक जाना। तो जब वह पर्ल्‍स के पास गयी और वहां का सारा हिसाब देखा, वह तो घबरा गई। बहुत घबरा गयी, क्‍योंकि वहां सहज जीवन सूत्र है। सारे लोग बैठे है और एक आदमी नंगा चला आयेगा हाल में और आकर बैठ जायेगा। अगर उसको नंगा होना ठीक लग रहा है तो यह उसकी मरजी है। इसमें किसी को कुछ लेना देना नहीं है। न कोई हाल में चीखेगी, न कोई चिल्‍लायेगा, न कोई गौर से देखेगा, उसे जैसा ठीक लग रहा है, उसे वैसा करने देना है।
      और जो लोग पर्ल्‍स के पास महीने भर रह आते है। उनकी जिंदगी में कुछ  नये फूल खिल जाते है। क्‍योंकि पहली दफा वे हल्‍के, पक्षियों की तरह जी पाते है। पौधों की तरह, या जैसे आकाश में कभी चील को उड़ते देखा हो—पंख भी नहीं चलाती। पंख भी बंद हो जाते है। बस हवा पर तैरती रहती है। उसे पहाड़ी पर पर्ल्‍स के पास भी व्‍यक्‍ति हवा में तैर रहे है। एक आदमी बहार नाच रहा है। कोई गीत गा रहा है। तो गीत गा रहा है। कोई रो रहा है तो रो रहा है। कोई रूकावट नहीं है।
      लेकिन हमने तो आदमी को सब तरह से रोक रखा है। बच्‍चे को निर्देश देने से शुरू हो जाती  है कहानी। हमारी सारी शिक्षा–‘डू नाट’ से शुरू हो जाती है। और हर बच्‍चे के दिमाग में हम ज्‍यादा से ज्‍यादा ‘मत करो’ थोपते चले जाते है। अंतत: करने की सारी क्षमता, सृजन की सारी क्षमता, ‘न-करने’ के इस जाल में लुप्‍त हो जाती है। या तो वह आदमी चोरी से शुरू कर देता है, जो-जो हमने रोका था, कि यह मत करो। और या फिर भीतर परेशानी में पड़ जाता है।
      दो ही रास्‍ते है, या पाखंडी हो जाये, या पागल हो जाये।
      अगर भीतर लड़ा और अगर सिंसियर होगा, ईमानदार होगा तो पागल हो जायेगा। अगर होशियार हुआ, चालाक हुआ, कौनिंग हुआ ता पाखंडी हो जायेगा। एक दरवाजा मकान के पीछे से बना लेगा। जहां से करने की दुनिया रहेगी। एक दरवाजा बाहर से रहेगा जहां ‘न करने’ के सारे ‘टेन कमांडमैंट्स’ लिखे हुए है। वहां वह सदा ऐसा  खड़ा होगा कि यह में नहीं करता हूं। और करने की अलग दुनिया बना लेगा।
      मनुष्‍य को खंडित, स्‍किजोफ्रेनिक बनाने में, मनुष्‍य के मन को खंड-खंड करने में सभ्‍यता की ‘न करने’ की शिक्षा ने बड़ा काम किया है।
      हिप्‍पी कह रहा है कि जो हमें करना है, वह हम करेंगे। और उसके लिए जो भी हमें भोगना है, हम भोग लेंगे। लेकिन एक बात हम न करेंगे कि करें कुछ, और दिखायें कुछ। यही बड़ी बगावत है।
      हालांकि सदा से साधु-संतों ने कहा था कि बाहर और भीतर एक होना चाहिए। हिप्‍पी भी यही कहते है। लेकिन एक बुनियादी फर्क है। साधु-संत कहते है। कि बाहर और भीतर एक होना चाहिए। तब उनका मतलब है: बाहर जैसे हो वैसे ही भीतर होना चाहिए। हिप्‍पी जब कहता है कि बाहर भीतर एक होना चाहिए: तो वह कहता है कि भीतर जैसे हो वैसे ही बाहर भी होना चाहिए। इन दोनो में फर्क है।
       साधु संत जब कहते है कि बहार भीतर एक जैसा होना चाहिए। तो वह कहते है कि भीतर का दरवाजा बंद करो। हिप्‍पी कहता है बहार भीतर एक होना चाहिए। तो वह कहता है: बाहर जो दस निषेध आज्ञाओं, टेन कमांडमैंट्स की तख्‍ती लगी है उसको उखाड़कर फेंक दो। और जैसे भी हो, वैसे हो जाओ। अगर चोर हो तो चोर अगर बेईमान हो तो बेईमान, क्रोधी हो तो क्रोधी। बड़ा खतरा तो यह है कि क्रोधी अभिनय कर रहा अक्रोध का, हिंसक अभिनय कर रहा है अहिंसक का, कामी अभिनय कर रहा है ब्रह्मचर्य का। और पुरानी सारी संस्‍कृतियां अभिनय को बड़ी कीमत देती है। और कुशल अभिनेता की बड़ी पूजा हाथी है।
      हिप्‍पी कह रहा है हम अभिनय की पूजा नहीं करते। हम जीवन के पूजक है। हिप्‍पी यह कह रहा है कि झूठे ब्रह्मचर्य से सच्‍चा यौन भी अर्थपूर्ण है। झूठे ब्रह्मचर्य में भी वह सुगंध नहीं है, जो सच्‍चे यौन में हो सकती है। सच्‍चे ब्रह्मचर्य की तो बात ही दूसरी है। उसकी सुगंध का हमे क्‍या पता? लेकिन सच्‍चा यौन न हो तो सच्‍चे ब्रह्मचर्य की कोई संभावना ही नहीं है। अभी हिप्‍पी यह नहीं कह रहे है, लेकिन शीध्र ही जानेंगे तो कहेंगे। हम अगर पशु है तो स्‍वीकृत है कि हम पशु है और हम पशु की भांति ही जीयेंगे।
      तीसरी बात, जब मैं सोचता हूं तो मुझे लगता है कि अगर खोज की जाये तो ईसाईयों की कहानी के अदम और ईव हिप्‍पियों के आदि पुरूष कहे जाने चाहिए। क्‍योंकि अदम और ईव को ईश्‍वर ने कहा था कि तुम ज्ञान के वृक्ष का फल मत चखना। उन्‍होंने बगावत कर दी और जिस वृक्ष का फल नहीं चखने को कहा था, उसी का फल चख लिया और ईड़न के बग़ीचे से बहिष्‍कृत कर दिये गये।
      तीसरा सूत्र है हिप्‍पी का: विद्रोह, इनकार का साहस। एक तो कन्‍फरमिस्‍ट की जिन्‍दगी है, ‘हां-हुजूर की’ ‘यस सर’ की। वह जो भी कह रहा है, ‘हां’ कह रहा है। वह सदा ‘हां हुजूर’ कहने के लिए तैयार है। उसने चाहे बात भी ठीक से नहीं सुनी है, लेकिन ‘हां हुजूर’ कहे जा रहा है। उसे पता भी नहीं कि वह किस चीज में हां भर रहा है। लेकिन वह हां भरे चला जा रहा है। एक गुरु एक सीक्रेट उसे पता है। जिन्‍दगी में जीना हो तो सब चीज में ‘हां’ कहे चले जाओ।
      हिप्‍पी कह रहा है जब तक हम समाज की हर चीज में ‘हां’ कह रहे है, तब तक व्‍यक्‍ति का जन्‍म नहीं होता। व्‍यक्‍ति का जन्‍म होता है ‘नौ से इंग’ से, न कहना शुरू करने से।
      असल में मनुष्‍य की आत्‍मा ही तब पैदा होती है, जब कोई आदमी ‘नो’ नहीं कहने की हिम्‍मत जुटा लेता है।
      जब कोई कह सकता है, नहीं, चाहे दांव पर पूरी जिंदगी लग जाती हो। और जब एक बार आदमी नहीं, कहना शुरू कर दे, ‘नहीं’ कहना सीख ले, तब पहली दफा उसके भीतर इस ‘नहीं’ कहने के कारण, ‘डिनायल’ के कारण व्‍यक्‍ति का जन्‍म शुरू होता है। यह ‘न’ की जो रेखा है, उसको व्‍यक्‍ति बनाती है। ‘हां’ की रेखा उसको समूह का अंग बना देती है। इसलिए समूह सदा आज्ञाकारिता पर जोर देता है।
      बाप अपने ‘गोबर गणेश’ बेटे को कहेगा कि आज्ञाकारी है। क्‍योंकि गोबर गणेश बेटे से न निकलती ही नहीं। असल में ‘न’ निकलने के लिए थोड़ी बुद्धि चाहिए। हां निकलने के लिए बुद्धि की कोई जरूरत नहीं है। हां तो कम्प्युटराइज्ड है, वह तो बुद्धि जितनी कम होगी, उतनी जल्‍दी निकलता है। न तो सोच विचार मांगता है। न तो तर्क आर्गुमेंट मांगता है। न जब कहेंगे तो पच्‍चीस बार सोचना पड़ता है। क्‍योंकि न कहने पर बात खत्‍म नहीं होती। शुरू होती है। हां कहने पर बात खत्‍म हो जाती है। शुरू नहीं होती।
      बुद्धिमान बेटा होगा तो बाप को ठीक नहीं लगेगा, क्‍योंकि बुद्धिमान बेटा बहुत बार बाप को निर्बुद्धि सिद्ध कर देगा। बहुत क्षणों में बाप को ठीक नहीं लगेगा, क्‍योंकि अपने आप को भी वह निर्बुद्धि मालूम पड़ रहा है। बड़ी चोट है, अहंकार को। वह कठिनाई में डाल देगा।
      इसलिए हजारों साल से बाप, पीढ़ी, समाज ‘हां’ कहने की आदत डलवा रहा है। उसको वह अनुशासन कहे, आज्ञाकारिता कहे और कुछ नाम  दे लेकिन प्रयोजन एक है। और वह यह है कहे विद्रोह नहीं होना चाहिए। बगावती चित नहीं होना चाहिए।
      हिप्‍पियों का तीसरा सूत्र है कि अगर चित ही चाहिए हो तो सिर्फ बगावती ही हो सकता है। अगर आत्‍मा चाहिए हो तो वह ‘रिबैलियस’ ही हो सकती है। अगर आत्‍मा ही न चाहिए तो बात दूसरी।
      कन्‍फरमिस्‍ट के पास कोई आत्‍मा नहीं होती।
      यह ऐसा ही है, जैसे एक पत्‍थर पडा है, सड़क के किनारे। सड़क के किनारे पडा हुआ पत्‍थर मूर्ति नहीं बनता। मूर्ति तो तब बनता है। जब छैनी और हथौड़ी उस पर चोट करती और काटती है। जब कोई आदमी ‘न’ कहता है। और बगावत करता है। तो सारे प्राणों पर छैनी और हथौड़ियां पड़ने लगती है। सब तरफ से मूर्ति निखरना शुरू होती है। लेकिन जब कोई  पत्‍थर कह देता है ‘’हां’’ तो छैनी हथौड़ी नहीं होती वहां पैदा। वह फिर पत्‍थर ही रह जाता है। सड़क के किनारे पडा हुआ।
      लेकिन समस्‍त सत्ताधिकारी यों को चाहे वे पिता हो, चाहे मां, चाहे शिक्षक हो। चाहे बड़ा भाई हो, चाहे राजनेता हो, समस्‍त सत्ताधिकारी यों को ‘’हां-हुजूर’’ की जमात चाहिए।
      हिप्‍पी कहते है कि इससे हम इंकार करते है। हमें जो ठीक लगेगा। वैसा हम जीयेंगे। निश्‍चित ही तकलीफ है और इसलिए हिप्‍पी भी एक तरह का संन्‍यासी है। असल में संन्‍यासी कभी एक दिन एक तरह का हिप्‍पी ही था, उसने भी इंकार किया था, अ-नागरिक था, समाज छोड़ दिया, चला गया स्‍वछंद जीने की राह पर।
      जैसे महावीर नग्‍न खड़े हो गए, महावीर जिस दिन बिहार में नग्‍न हुए होंगे। उस दिन मैं नहीं समझता कि पुरानी जमात ने स्‍वीकार किया होगा। यहां तक बात चली कि अब महावीर को मानने वालों के दो हिस्‍से है। एक तो कहता है कि वस्‍त्र पहनते थे। लेकिन वे अदृश्‍य वस्‍त्र थे, दिखाई नहीं देते थे। यह पुराना कन्‍फरमिस्‍ट जो होगा, उसने आखिर महावीर को भी वस्‍त्र पहना दिये, लेकिन ऐसे वस्‍त्र जो दिखाई नहीं पड़ रहे है। इस लिए कुछ लोगों को भूल हुई कि वे नंगे थे। वे नंगे नहीं थे। वस्‍त्र पहने थे।
      जीसस, बुद्ध, महावीर जैसे लोग सभी बगावती है। असल में मनुष्‍य जाति के इतिहास में जिनके नाम भी गौरव से लिये जा सकें वे सब बगावती है।

 -ओशो
संभोग से समाधि की और
विद्रोह क्‍या है,
प्रवचन—10  

संभोग से समाधि की ओर_भाग-37 प्रवचन-10

हिप्‍पी वाद पर मैं कुछ कहूं ऐसा छात्रों ने अनुरोध किया है।   
 
      इस संबंध में पहली बात, बर्नार्ड शॉ ने एक किताब लिखी है: मैक्‍सिम्‍प फॉर ए रेव्‍होल्‍यूशनरी, क्रांतिकारी के लिए कुछ स्‍वर्ण-सूत्र। और उसमें पहला स्‍वर्ण बहुत अद्भुत लिखा है। और एक ढंग से पहले स्‍वर्ण सूत्र लिखा है: दि फार्स्‍ट गोल्‍डन रूल इज़ दैट देयर आर नौ गोल्‍डन रूल्‍स पहला स्‍वर्ण नियम यही है कि कोई भी स्‍वर्ण-नियम नहीं है।
      हिप्‍पी वाद के संबंध में जो पहली बात कहना चाहूंगा, वह यह कि हिप्‍पी वाद कोई वाद नहीं है, समस्‍त वादों का विरोध है। पहली पहले इस वाद को ठीक से समझ ले।

      पाँच हजार वर्षों से मनुष्‍य को जिस चीज ने सर्वाधिक पीड़ित किया है वह है वाद—वह चाहे इस्‍लाम हो, चाहे ईसाइयत हो, चाहे हिन्‍दू हो, चाहे कम्यूनिज़म हो, सोशलिज्‍म हो,फासिस्ट, या गांधी-इज्‍म हो। वादों ने मनुष्‍य को बहुत ज्‍यादा पीड़ित किया है।
      मनुष्‍य इतिहास के जितने युद्ध है, जितना हिंसा पात है, वह सब वादों के आसपास धटित हुआ है। वाद बदलते चले गये है, लेकिन नये वाद पुरानी बीमारियों को जगह ले लेते है और आदमी फिर वही का वहीं खड़ा हो जाता है।
      1917 में रूस में पुराने वाद समाप्‍त हुए, पुराने देवी-देवता विदा हुए तो नये देवी-देवता पैदा हो गये। नया धर्म पैदा हो गया। क्रेमलिन अब मक्‍का और मदीना से कम नहीं है। वह नयी काशी है, जहां पूजा के फूल चढ़ाने सारी दूनिया के कम्‍युनिस्‍ट इकट्ठे होते है। मूर्तियां हट गई, जीसस क्राइस्‍ट के चर्च मिट गये। लेकिन लेनिन की मृत देह क्रेमलिन के चौराहे पर रख दी गयी है। उसकी भी पूजा चलती है।
      वाद बदल जाता है,लेकिन नया वाद उसकी जगह ले लेता है।
      हिप्‍पी समस्‍त बादों से विरोध है। हिप्‍पी के नाम से जिन युवकों को आज जाना जाता है, उनकी धारणा यह है कि मनुष्‍य बिना वाद के जी सकता है। न किसी धर्म की जरूरत है,न किसी शास्‍त्र, न किसी सिद्धांत की, न किसी विचार सम्‍प्रदाय, आइडियालॉजी की। क्‍योंकि उनकी समझ यह है जितना ज्‍यादा विचार की पकड़ जोती है, जीवन उतना ही कम हो जाता है। हिप्‍पियों की इस बात से मैं अपनी सहमति जाहिर करना चाहता हूं। इन अर्थों में वे बहुत सांकेतिक है, सिम्‍बालिक है और आने वाले भविष्‍य की एक सूचना देते है।
      आज से 100 वर्ष बाद दुनिया में जो मनुष्‍य होगा, वह मनुष्‍य वादों के बाहर तो निश्‍चित ही चला जायेगा। वाद का इतना विरोध होने का कारण क्‍यो है?
      हिप्‍पियों के मन में उन युवकों के मन में जो समस्‍त वादों के विरोध में चले गए है। समस्‍त मंदिरों, समस्‍त चर्चों के विरोध में चले गये है। जाने का कारण है। और कारण है इतने दिनों का निरंतर का अनुभव। वह अनुभव यह है कि जितना ही हम मनुष्‍य के ऊपर वाद थोपते है। उतनी ही मनुष्‍य की आत्‍मा मर जाती है।
      जितना बड़ा ढांचा होगा वाद का, उतनी ही भीतर की स्‍वतंत्रता समाप्‍त हो जाती है।
      इसलिए यह कहा जा सकता है कि हममें से बहुत से लोग मर तो बहुत पहले जाते है दफनाए बहुत बाद में जाते है। कोई 30 साल में मर जाता है और 70 साल में दफनाया जाता है। हम उसी दिन अपनी स्‍वतंत्रता, अपना व्‍यक्‍तित्‍व अपनी आत्‍मा खो देते है, जिस दिन कोई विचार का कोई ढांचा हमें सब तरफ से पकड़ लेता है।
      सींकचे तो दिखाई पड़ते है लोहे के, कारागृह दिखाई पड़ते है लोहे के, लेकिन विचार के कारागृह दिखाई नहीं पड़ते और जो कारागृह जितना कम दिखाई पड़ता है उतना ही खतरनाक है।
      अभी में एक नगर से विदा हुआ। बहुत से मित्र छोड़ने आए थे जिस कम्‍पार्टमेंट में मैं था उसमें एक साथी थे। उन्‍होंने देखा कि बहुत मित्र मुझे छोड़ने आये है। तो जैसे ही मैं अंदर प्रविष्‍ट हुआ, गाड़ी चली, उन्‍होंने जल्‍दी से मेरे पैर छुए और कहा कि महात्‍मा जी, नमस्‍कार करता हूं। बड़ा आनंद हुआ कि आप मेरे साथ होंगे। मैंने उनसे कहा कि ठीक से पता लगा लेना कि महात्‍मा हू या नहीं। आपने तो जल्‍दी पैर छू लिये। अब अगर मैं महात्‍मा सिद्ध न हुआ तो पैर छूने को वापस कैसे लेंगे?
      उन्‍होंने कहा, नहीं-नहीं ऐसा कैसे हो सकता है, आपके कपड़े कहते है। मैंने कहा, अगर कपड़ों से कोई महात्‍मा होता तो तब तो पृथ्‍वी सारी की सारी कभी की महात्‍मा हो गई होती। उन्‍होंने कहा कि नहीं इतने लोग छोड़ने आये थे? तो मैंने कहा कि किराये के आदमी इतने ज्‍यादा लोगों को छोड़ने आते है कि उसका कोई मतलब नहीं रहा है। वे कहने लगे, कम से कम आप हिन्‍दू तो है?
      उन्‍होंने सोचा कि न सही कोई महात्‍मा हों, हिन्‍दू होंगे तो भी चलेगा। कोई ज्‍यादा गुनाह नहीं हुआ, पैर छू लिए। तो मैंने कहा, नहीं, हिन्‍दू भी नहीं हूं। तो उन्‍होंने कहा,आप आदमी कैसे है? कुछ तो होंगे, मुसलमान होंगे, ईसाई होंगे? मैंने उनसे पूछा कि क्‍या मेरे सिर्फ आदमी होने से आपको कोई एतराज है? क्‍या सिर्फ आदमी होकर मैं नहीं हो सकता हूं, मुझे कुछ और होना ही पड़ेगा? उनकी बेचैनी देखने जैसी थी। कंडक्‍टर को बुलाकर वे दूसरे कंपार्टमेंट में अपना सामान ले गये।
      मैं थोड़ी देर बाद उनके पास गया और मैंने उनको कहा आप तो कहते थे सत्‍संग होगा,बड़ा आनंद होगा। आप तो चले गये। क्‍या एक आदमी  के साथ सफर कना उचित नहीं मालूम पड़ा? हिन्‍दू के साथ सफर हो सकता था। आदमी के साथ बहुत मुश्‍किल है।
      आज पश्‍चिम में जिन युवकों ने हिप्‍पियों का नाम ले रखा है, उनकी पहली बगावत यह है कि वे कहते है कि हम सीधे आदमी की तरह जीयेंगे। न हम हिन्‍दू होंगे, न हम कम्‍युनिस्‍ट होंगे। न हम सोशलिस्‍ट होंगे, न ईसाई होंगे; हम सीधे निपट आदमी की तरह जीने की कोशिश करेंगे। निपट आदमी की तरह जीने की जो भी कोशिश है, वह मुझे तो बहुत प्रीतिकर हे।
      हिप्‍पी नाम तो नया है। लेकिन घटना बहुत पुरानी है। मनुष्‍य के इतिहास में आदमी ने कई बाद निपट आदमी की तरह जीने की कोशिश की है। निपट आदमी की तरह जीने में बहुत से सवाल है।
      धर्म नहीं, चर्च नहीं, समाज नहीं—अंतत: देश भी नहीं; क्‍योंकि देश, राष्‍ट्र सब उपद्रव है। सब बीमारियां है।
      कल तक पाकिस्‍तान की भूमि हमारी मातृभूमि हुआ करती थी। अब वह हमारे शत्रु की मातृभूमि है। जमीन वहीं की वही है। कहीं टूटी नहीं, कहीं दरार नहीं पड़ी।
      मैंने सुना है, एक पागल खाना था हिन्‍दुस्‍तान के बंट वारे के समय। हिन्‍दुस्‍तान पाकिस्‍तान की सीमा पर। अब वह भी सवाल उठा कि इस पागल खाने को कहां जाने दे—हिन्‍दुस्‍तान में कि पाकिस्‍तान में। कोई राजनैतिक उत्‍सुक न था कि वह पागलखाना कहीं भी ला जाये। तो पागलों से ही पूछा अधिकारियों ने कि तुम कहां जाना चाहते हो। हिन्‍दुस्‍तान में या पाकिस्‍तान में? तो उन पागलों ने कहा हम तो जहां है, वहां बड़े आनंद में है। हमें कहीं जाने की कोई इच्‍छा नहीं है। पर उन्‍होंने कहा कि जाना तो पड़ेगा ही,  यह इच्‍छा का सवाल नही है। और तुम घबराओ मत। तुम हिन्‍दुस्‍तान में चाहो तो हिन्‍दुस्‍तान में चले जाओ,पाकिस्‍तान में चाहो तो पाकिस्‍तान में चले जाओ। तुम जहां हो वहीं रहोगे। यहां से हटना न पड़ेगा।
      तब तो वे पागल बहुत हंसने लगे। उन्‍होंने कहा,हम तो सोचते थे कि हम ही पागल है। लेकिन ये अधिकारी और भी पागल मालूम पड़ता है। क्‍योंकि ये कहता है कि जाना कहीं न पड़ेगा और पूछते है जाना कहां चाहते हो। उन पागलों ने कहा, कि जब जाना ही नहीं  पड़ेगा तो जाना चाहते हो का सवाल क्‍या है? उन पागलों को समझाना बहुत मुश्‍किल हुआ। आखिर आधा पागलखाना बीच से दीवार उठाकर पाकिस्‍तान में चला गया, आधा हिन्‍दुस्‍तान में चला गया।
      मैंने सुना है कि अभी वे पागल एक दूसरे की दीवार पर चढ़ जाते है और आपस में सोचते है कि बड़ी अजीब बात है, हम वहीं के वहीं है, लेकिन तुम पाकिस्‍तान में चले गये हो और हम हिन्‍दुस्‍तान में चले गये है।
      ये पागल हमसे कम पागल मालूम होत है। हमने जमीन को बांटा है, आदमी को बांटा है।
      हिप्‍पी कह रहा है, हम बांटेंगे नहीं; हम निपट बिना बटे हुए आदमी की तरह जीना चाहते है। और बाद बांटते है। बांटने की सबसे सुविधापूर्ण तरकीब बाद है इज्‍म है।     
      इसलिए हिप्‍पी कहते है कि हम किसी इज्‍म में नहीं है। ऊब चुके तुम्‍हारे बादों से, तुम्‍हारे धर्मों से। हमें निपट आदमी की तरह छोड़ दो—हम जैसे है, वैसे जीना चाहते है।
      यह तो पहला सूत्र है। इसलिए मैंने कहा, यह बात पहले समझ लेना जरूरी है। हिप्पी इज्म जैसी चीज नहीं है, हिप्‍पीज है। हिप्‍पी वाद नहीं है। हिप्‍पी जरूर है।
      दूसरी बात ध्‍यान में लेने जैसी है और वह यह कि हिप्‍पियों की ऐसी धारण है कह न केवल आदमी की तरह जीयें बल्‍कि सहज आदमी की तरह जीयें। हजारों साल से सभ्‍यता ने आदमी को असहज बनाया है, जैसा वह नहीं है वैसा बनाया है। हजारों साल की सभ्‍यता संस्‍कार, व्‍यवस्‍था ने आदमी को कृत्रिम को झूठा बनाने की कोशिश की है। उसके हजार चेहरे बना दिये है।
      मैने सुना है कह अगर एक कमरे में मैं और आप दो जन मिलें तो वहां दो जन नहीं होंगे,वहां कम से कम 6 जन होंगे। एक मैं—जैसा मैं हूं, एक मैं—जैसा की मैं सोचता हूं। और एक मैं—जैसाकि आप मुझे समझते है कि मैं हूं। और तीन आप और तीन मैं। उस कमरे में जहां दो आदमी मिलते है कम से कम 6 आदमी मिलते है। हजार मिल सकते है, क्‍योंकि हमारे हजार चेहरे है, मुखौटे है।
      हर आदमी कुछ है ओर, कुछ दिखला रहा है। कुछ है, कुछ बन रहा है। और कुछ दिखला रहा है। और फिर न मालुम कितने चेहरे है—जैसे दर्पण के आगे दर्पण, और दर्पण के आगे दर्पण और एक दूसरे के प्रतिबिम्‍ब हजार-हजार प्रतिबिम्‍ब हो गये है। इन प्रतिबिम्‍बों की भीड़ में पता लगाना ही मुश्‍किल है कि कौन है आप। तय करना ही मुश्‍किल है कि कौन सा चेहरा है आपका अपना?
      पत्‍नी के सामने आपका चेहरा दूसरा होता है। बेटे के सामने दूसरा हो जाता है। नौकर के सामने एक होता है। मालिक के सामने एक हो जाता है। जब आप मालिक के सामने खड़े होते है तो जो पूंछ आपके पास नहीं है, वह हिलती रहती है। और जब आप नौकर के पास खड़े होते है तब जो पूंछ उसके पास नहीं है, आप गौर से देखते रहते है कि वह हिला रहा है या नहीं हिला रहा है।
      हिप्‍पियों की धारण मुझे प्रीतिकर मालूम पड़ती है। वे कहते है कि हम सहज आदमियों की तरह जीयेंगे। जैसे हम है। धोखा न देंगे। प्रवंचना, पाखंड, डिसेप्‍शन खड़ा न करेंगे। ठीक है, तकलीफ होगी तो तकलीफ झेलेंगे। लेकिन हम जैसे हम है, वैसे ही रहेंगे।
      अगर हिप्‍पी को लगता है कि वह किसी से कहे कि मुझे आप पर क्रोध आ रहा है और गाली देने का मन होता है तो वह आपसे आकर कहेगा पास में बैठकर कि मुझे आप पर बहुत क्रोध आ रहा है और मैं आपको दो गाली देना चाहता हूं।
      मैं समझता हूं कि वह बड़ा मानवीय गुण है। और वह क्षमा मांगने नहीं आयेगा पीछे,जब तक उसे लगे न, क्‍योंकि वह कहेगा गाली देने का मेरा मन था, मैंने गाली दी और अब जो भी फल हो उसे लेने के लिए मैं तैयार हूं। लेकिन गाली भीतर ऊपर मुस्‍कराहट इस बात को इंकार कर रहा हूं। लेकिन हमारी स्‍थिति यह है कि भीतर कुछ है, बहार कुछ। भीतर एक नर्क छिपाये हुए है हम, बाहर हम कुछ और हो गये है। एक आदमी एक जीता-जागता झूठ है।
      हिप्‍पी का दूसरा सूत्र यह है कि हम जैसे है, वैसे है। हम कुछ भी रूकावट न करेंगे,छिपा वट न करेंगे।
      मेरे एक मित्र हिप्‍पियों के एक छोटे से गांव में जाकर कुछ दिन तक रहे तो मुझसे बोले कि बहुत बेचैनी होती है वहां। क्‍योंकि वहां सारे मुखौटे उखड जाते है। वहां बजाय एक युवक एक युवती के पास आकर कविताएं कहे, प्रेम की और बातें करे हजार तरह की, वह उससे सीधा ही आकर निवेदन कर देगा कि मैं आपको भोगना चाहता हूं। वह कहेगा कि इतने सारे जाल के पीछे इरादा तो वही है। उस इरादे के लिए इतने जाल बनाने की कोई जरूरत नहीं है। वह कह सकता है एक लड़की को जाकर कि मैं तुम्‍हारे साथ बिस्‍तर पर सोना चाहता हूं।
      बहुत घबरानें वाली बात लगेगी। लेकिन सारी बातचीत और सारी कविता और सारे संगीत और सारे प्रेम चर्चा के बाद यही घटना अगर घटने वाली है। तो हिप्‍पी कहता है कि इसे सीधा ही निवेदन कर देना उचित है। किसी को धोखा तो न हो, वह लड़की अगर न चाहती है सोना, तो कह तो सकती है कि क्षमा करो।
      एक जाल सभ्‍यता ने खड़ा किया है, जिसने आदमी को बिलकुल ही झूठी इकाई बना दिया है।
      अब एक पति है, वह अपनी पत्‍नी से रोज कहे जा रहा है कि मैं तुम्‍हें प्रेम करता हूं। और भीतर जानता है कि यह मैं क्‍यों कहा रहा हूं। एक पत्‍नी है, वह अपने पति से रोज कहे जा रही है कि मैं तुम्‍हारे बिना एक क्षण नहीं जी सकती और उसी पति के साथ एक क्षण जीना मुश्‍किल हुआ जा रहा है।
      बाप बेटे से कुछ कह रहा है। कि बाप बेटे से कहा रह है कि मैं तुम्‍हें इसलिए पढ़ा रहा हूं कि मैं तुझे बहुत प्रेम करता हूं। और वह पढ़ा इसलिए रहा है कि बाप अपढ़ रह गया है। और उसके अहंकार की चोट घाव बन गयी है। वह अपने बेटे को पढ़ा कर अपने अहंकार की पूर्ति करना चाहता है। बाप नहीं पहुंच पाया मिनिस्‍टरी तक, वह बेटे को पहुंचाना चाहता है। पर वह कहता है बेटे को मैं बहुत प्रेम करता हूं इसलिए.....लेकिन उसे पता नहीं है कि बेटे को मिनिस्‍टरी तक पहुंचाना बेटे को नर्क तक पहुंचा देना है। अगर प्रेम है तो कम से कम बाप एक बात तो न चाहेगा कि बेटा राजनीतिज्ञ हो जाए।
      सारी दूनिया प्रेम कर रही है। लेकिन प्रेम का कोई विस्‍फोट कभी नहीं होता है। सारी दूनिया प्रेम कर रही है और जब भी विस्‍फोट होता है तो घृणा का होता है। हिप्‍पी कहता है जरूर हमारा प्रेम कहीं धोखे का है। कर रहे है घृणा कह रहे है प्रेम।
      मैं एक स्‍त्री को कहता  हूं कि मैं तुझे प्रेम करता हूं और मेरी स्‍त्री जरा पड़ोस के आदमी की तरफ गौर से देख ले तो सारा प्रेम विदा हो गया और तलवार खिंच गयी। कैसा प्रेम है। अगर मैं इस स्‍त्री को प्रेम करता हूं तो ईर्ष्‍यालु नहीं हो सकता। प्रेम में ईर्ष्‍या की कहां जगह है? लेकिन जिस को हम प्रेम कहते है वे सिर्फ एक दूसरे के पहरेदार बन जाते है और कुछ भी नहीं,और एक दूसरे के लिए ईर्ष्‍या का आधार खोज लेते है। जलते है,जलाते है परेशान करते है।
      हिप्‍पी यह कह रहा है कि बहुत हो चुकी यह बेईमानी। अब हम तो जैसे है, वैसे है। अगर प्रेम है तो कह देंगे कि प्रेम है और जिस चुक जायेगा उस दिन निवेदन कर देंगे कि प्रेम चुक गया। अब झूठी बातों में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है, मैं जाता हूं।
      लेकिन पुराने प्रेम की धारणा कहती है कि प्रेम होता है तो फिर कभी नहीं मिटता,शाश्‍वत होता है। हिप्‍पी कहता है होता होगा। अगर होगा तो कह दूँगा कि शाश्‍वत है, टिका है। नहीं होगा तो कह दूँ की नहीं है।
      एक जाल है जो सभ्‍यता ने विकसित किया है। उस जाल में आदमी की गर्दन ऐसे फंस गई है, जैसे फांसी लग गई हो उस जाल से बगावत है हिप्‍पी की।

-ओशो
संभोग से समाधि की ओर
विद्रोह क्‍या है,
प्रवचन—10  

संभोग से समाधि की ओर_भाग-36 प्रवचन-9

प्रश्‍न कर्ता: भगवान श्री, एक और प्रश्‍न है कि परिवार नियोजन जैसा अभी चल रहा है उसमें हम देखते है कि हिन्‍दू ही उसका प्रयोग कर रहे है, और बाकी और धर्मों के लोग ईसाई, मुस्‍लिम, ये सब कम ही उपयोग कर रहे है। तो ऐसा हो सकता है कि उनकी संख्‍या थोड़े वर्षों के बाद इतनी बढ़ जाये कि एक और पाकिस्‍तान मांग लें और तुर्किस्‍तान मांग लें और कुछ ऐसी मुश्‍किलें खड़ी हो जायें। फिर पाकिस्‍तान या चीन है,जहां जनसंख्‍या पर रूकावट नहीं है। तो उसमें  अधिक लोग हो जायेंगे और पर हमला करने की चेष्‍टा रखते है। तो हमारी जनसंख्‍या कम होने से हमारी ताकत कम हो जाय। तो इसके बारे में आपके क्‍या ख्‍याल है?
    
          इस संबंध में दो तीन बातें ख्‍याल में रखने की है।
      पहली बात तो यह कि आज के वैज्ञानिक युग में जनसंख्‍या का कम होना, शक्‍ति का कम होना नहीं है। हालतें उल्‍टी है, हाल तो यह है कि जिस मुल्‍क की जनसंख्‍या जितनी ज्‍यादा है, या टेकांलॉजिकल दृष्‍टि से कमजोर है। क्‍योंकि इतनी बड़ी जनसंख्‍या के पालन-पोषण में, व्‍यवस्‍था में उसके पास अतिरिक्‍त सम्‍पति बचने वाली नहीं है। जिससे वह एटम बम बनाये, हाइड्रोजन बम बनाये, सुपर बन बनाये, और चाँद पर जाये। जितना गरीब देश होगा आज वह उतना ही वैज्ञानिक दृष्‍टि से शक्‍तिहीन देश है।
      आज तो वहीं देश शक्‍ति शाली होगा, जिसके पास ज्‍यादा संपति है, ज्‍यादा व्‍यक्‍ति नहीं।
      वह जमाना गया, जब आदमी ताकतवर था, अब मशीन ताकतवर है। और मशीन उसी देश के पास अच्छी से अच्‍छी हो सकेगी, जिस देश के पास जितनी सम्पन्नता होगी और सम्पन्नता उसी देश के पास ज्‍यादा होगी, जिसके पास प्राकृतिक साधन ज्‍यादा और जनसंख्‍या कम होगी।
      तो पहली बात यह है कि आज जनसंख्‍या शक्‍ति नहीं है और इसलिए भ्रांति में पड़ने का कोई कारण नहीं है। चीन के पास चाहे जितनी जनसंख्‍या हो तो भी शक्‍तिशाली अमेरिका होगा। चीन के पास जितनी भी जनसंख्‍या हो तो भी छोटा सा मुल्‍क इंगलैंड शक्‍तिशाली है। और जापन जैसा मुल्‍क भी शक्‍ति शाली है। शक्‍ति का पूरा का पूरा आधार बदल गया है।
      जब आदमी ही एक मात्र आधार था, तब तो ये बातें ठीक थी कि जनसंख्‍या बड़ा मूल्‍य रखती थी। लेकिन अब आदमी से भी बड़ी शक्‍ति हमने पैदा कर ली है, जो मशीन की है। मशीन ताकत है। और उतना ही सम्‍पन्‍न हो सकता है। जितना ज्‍यादा जनसंख्‍या उसकी कम हो, ताकि उसके पास सम्‍पति बच सके, लोगों को खिलाने कपड़ा पहिनानेइलाज कराने के बाद; ताकि उस शक्‍ति को वैज्ञानिक विकास में लगा सकें।
      दूसरी बात यह समझने जैसी है कि संख्‍या कम होने से उतना बड़ा दुर्भाग्‍य नहीं टूटेगा,जितना बड़ा दुर्भाग्‍य संख्‍या के बढ़ जाने से बिना किसी हमले के टूट जायेगा। यानी हमले का तो कोई उपाय भी किया जा सकता है कि कोई बड़ा मुल्‍क हम पर हमला करे तो हम दूसरों से सहायता ले लें, लेकिन हमारे ही बच्‍चे हमलावर सिद्ध हो जायें संख्‍या के अत्‍यधिक बढ़ जाने के कारण तो हम किसी की सहायता न ले सकेंगे। उस वक्‍त हम बिलकुल असहाय हो जायेंगे।
      इस वक्‍त युद्ध  इतना बड़ा खतरा नहीं है, जितना बड़ा खतरा जनसंख्‍या विस्‍फोट का है। खतरा बाहर नहीं है कि हमें कोई मार डाले,वरन जो हमारी उत्‍पाद क्षमता है बच्‍चें की,वहीं हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा है—कि संख्‍या इतनी ही जाये कि हम सिर्फ मर जाये इस कारण से कि न पानी हो, न भोजन हो, न रहने को जगह।
      तीसरी बात यह कि जो हम सोचते है क हिन्‍दू अपनी संख्‍या कम कर लें तो मुसलमान से कम न हो जायें, तो इस डर से हिंदू भी अपनी संख्‍या कम न करें। मुसलमान भी इस डर से अपनी संख्‍या कम न करें कि कहीं हिन्‍दू ज्‍यादा न हो जायें। ईसाई भी यही डर रखें। जैन भी यहीं डर रखें। तो इन सके डर एक है। तब परिणाम यह होगा कि मुल्‍क ही मर जायेगा। तो यह डर किसी को तो तोड़ना शुरू करना पड़ेगा। और जो समाज इस डर को तोड़ेगा, वह संपन्‍न हो जायेगा। मुसलमानों से उनके बच्‍चे ज्‍यादा स्‍वस्‍थ ज्‍यादा शिक्षित होंगे, ज्‍यादा अच्‍छे मकानों में रहेंगे। वे दूसरे समाजों को जिनकी संख्‍या कीड़े मकोड़ों की तरह बढ़ेगी उनको पीछे छोड़कर आगे निकल जायेंगे। और इसका परिणाम यह भी होगा कि दूसरे समाजों में भी स्‍पर्धा पैदा होगी इस ख्‍याल से कि वे गलती कर रहे है।
      आज दूनिया में यह बड़ा सवाल नहीं है कि हिन्‍दू कम हो गये तो कोई हर्ज हो रहा है। कि मुसलमान ज्‍यादा हो गये तो उनको कोई फायदा हो रहा है। बड़ा सवाल यह है कि अगर इन सारे लोगों के दिमाग में यही सवाल भरा रहे तो यह पूरा मुल्‍क मर जायेगा। मगर यही विकल्‍प है कि हिन्‍दू कम हो जायेंगे और इससे हिन्‍दुओं की संख्‍या को नुकसान पहुँचेगा। मुसलमान ज्‍यादा हो जायेंगे, ईसाई ज्‍यादा हो जायेंगे। तो भी मैं कहूंगा कि हिन्‍दू अपने को कम कर लें और भारत को बचाने का श्रेय ले लें। चाहे खुद मिट जायें। हालांकि इसकी कोई संभावना नहीं है। तो भी मैं कहूंगा कि मेरे लिए यह इतना बड़ा सवाल नहीं है, हिन्‍दू-मुसलमान का, जितना बड़ा मेरे लिए एक दूसरा सवाल है।
      जब तक हम परिवार नियोजन को स्‍वेच्‍छा पर छोड़े हुए है, तब तक खतरा एक दूसरा है कि जो जितना शिक्षित आरे उन्‍नत है, जो जितना संपन्‍न है, जिसकी बुद्धि विकसित है, वह तो राजी हो जाएगा स्‍वभावत। वह तो आज परिवार नियोजन के लिए राज़ी हो जाएगा। सिर्फ बुद्धूओं को छोड़कर। बुद्धिमान तो राज़ी होंगे ही; क्‍योंकि परिवार नियोजन से उसके बच्‍चे ज्‍यादा सुखी होंगे। ज्‍यादा शिक्षित होंगे।
      लेकिन खतरा यह है कि जो बुद्धिहीन वर्ग है—उसको न कोई शिक्षा है, न कोई ज्ञान है,न कोई सवाल है—वे समझ ही न पाये और बच्‍चे पैदा करते चले जायें। तो जो नुकसान हो सकता है लम्‍बे अर्थों में,वह यह हो सकता है वह अशिक्षित,अविकसित, पिछड़े हुए लोग ज्‍यादा बच्‍चे पैदा करें और शिक्षित वह संपन्‍न लोग कम बच्‍चे पैदा करें तो मुल्‍क की प्रतिभा को ज्‍यादा नुकसान पहुंचे। यह हो सकता है।
      इसलिए मेरी यह मान्‍यता है कि परिवार नियोजन की बात धीरे-धीरे अनिवार्य हो जानी चाहिए।
      कहीं ऐसा न हो कि बुद्धिमान तो स्‍वीकार कर लें और गैर-बुद्धिमान न करें,तो वह अनिवार्य होना चाहिए। इसलिए मैं अनिवार्य परिवार नियोजन के पक्ष में हूं।
      परिवार नियोजन किसी का स्‍वेच्‍छा पर नहीं छोड़ा जा सकता है।
      यह तो ऐसा है कि जैसे हम  हत्‍या को स्‍वेच्‍छा पर छोड़ दें कि जिसको करना हो करें,जिनको न करना हो न करें। डाके को स्‍वेच्‍छा पर छोड़ दें कि जिसको डाका डालना हो डाले,न डालना हो न डाले। सरकार समझाने की कोशिश करेगी ओर देखती रहेगी। डाका भी आज उतना खतरनाक नहीं है हत्‍या भी आज उतनी खतरनाक नहीं है जितना जनसंख्‍या का बढ़ना।      
      इस जीवंत सवाल को इस तरह स्‍वेच्‍छा पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। और जब हम इसे स्‍वेच्‍छा पर नहीं छोड़ते तो यह हिन्‍दू, मुसलमान, ईसाई का सवाल नहीं रह जाता। क्‍योंकि सिक्‍ख को उसका गुरु समझा रहा है कि तुम कम हो जाओगे। मुसलमान ज्‍यादा हो जायेंगे। मुसलमान को मौलवी समझा रहा है कि तुम कम हो जाओगे, हिन्‍दू कम ज्‍यादा हो जायेगे। वहीं ईसाई पादरी भी सोच रहा है वही हिन्‍दू पंडित भी सोच रहा है। ये बस जा सोच रहे है इनकी सोचने  की वजह भी अनिवार्य परिवार नियोजन से मिट जायेगी।
      यदि हम परिवार नियोजन कर देते है तो कोई हिन्‍दू, मुसलमान, ईसाई का सवाल नहीं रह जाता है।
      मेरे लिए तो सवाल यह है कि सैकड़ों वर्षों में कुछ लोग विकसित हो गये है और कुछ लोग अविकसित रह गये है। जो अविकसित वर्ग है, वह बच्‍चे ज्‍यादा छोड़ जाये तो देश की प्रतिभा और बुद्धिमत्‍ता को भी भारी नुकसान पहुंच सकता है। और यह नुकसान खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इसलिए इस दृष्‍टि से मैं  सारे सवाल को सोचता हूं कि केवल परिवार नियोजन ही न हो, बल्‍कि ऐसा लगता है कि वह अनिवार्य हो। एक भी व्‍यक्‍ति सिर्फ इसलिए न छोड़ा जा सके कि वह राज़ी नहीं है। और यह हमें करना ही पड़ेगा। इसे बिना किये हम इन आने वाले 50 वर्षों में जिन्‍दा नहीं रह सकते।
      शक्‍ति के सारे मापदंड बदल गये है, यह हमें ठीक से समझ लेना चाहिए।
      आज शक्‍तिशाली वह है जो संपन्‍न है और संपन्‍न वह है, जिसके पास जनसंख्‍या कम है और उत्‍पादन के साधन ज्‍यादा है।
      आज मनुष्‍य न तो उत्‍पादन का साधन है। न शक्‍ति का साधन है। आज मनुष्‍य सिर्फ भोक्‍ता है, कन्‍ज्‍यूमर है। मशीन पैदा करती है, जमीन पैदा करती है, मनुष्‍य खा रहा है।
      और धीरे-धीरे जैसे टेक्‍नोलॉजी विकसित होती है, आदमी की शक्‍ति सा सारा मूल्‍य समाप्‍त हुआ जा रहा है। आदमी ने हो तो भी चल सकता है। एक लाख आदमी जिस फैक्‍टरी में काम करते हों, उसे एक आदमी चला सकेगा। न हो तो भी चल सकता है। और हिरोशिमा में एक लाख आदमी मारना हो तो उन्‍हें एक आदमी मार सकेगा। पुराने जमाने में तो कम से कम एक लाख आदमी ले जाने पड़ते। अब तो कोई एक आदमी जाता है और एटम बम गिराकर उनको समाप्‍त कर देता है। कल यह भी हो सकता है कि एक आदमी को भी न जाना पड़े। कम्‍प्‍युटराइज्‍ड आदेश एक आदमी भर देगा मशीन में काम हो जायेगा। आदमी की संख्‍या बिलकुल महत्‍वहीन हो गयी है।
      यह जरूरी नहीं है कि मेरी सारी बातें मान ली जायें। इतना ही काफी है कि आप मेरी बात पर सोचें,विचार करें, अगर इस देश में सोच-विचार आ जाये तो शेष चीजें अपने आप छाया की तरह पीछे चली आयेगी।
      मेरी बातें ख्‍याल में ले और उस पर सूक्ष्‍मता से विचार करें तो हो सकता है कि आपको यह बोध आ जाये कि परिवार नियोजन की अनिवार्यता कोई साधारण बात नहीं है। जिसकी उपेक्षा की जा सके। वह जीवन की अनेक-अनेक समस्‍याओं की गहनत्‍म जड़ों से संबंधित है।  और उसे क्रियान्‍वित करने की देरी पूरी मनुष्‍य जाति के लिए आत्‍म धात सिद्ध हो सकती है।

-ओशो
संभोग से समाधि की ओर
जनसंख्‍या विस्‍फोट
प्रवचन—9

संभोग से समाधि की ओर_भाग-35 प्रवचन-9

प्रश्‍नकर्ता: भगवान श्री, परिवार नियोजन के बारे में अनेक लोग प्रश्‍न करते है कि परिवार द्वारा अपने बच्‍चों की संख्‍या कम करना धर्म के खिलाफ है। क्‍योंकि उनका कहना है कि बच्‍चे तो ईश्‍वर की देन है, और खिलाने वाला परमात्‍मा है। हम कौन है?हम तो सिर्फ जरिया है, इंस्टूरूमेंट है। हम तो सिर्फ बीच में इंस्‍टुमेंट है, जिसके ज़रिये ईश्‍वर खिलाता है। देने वाला वह, करने वाला वह, फिर हम क्‍यों रोक डालें? अगर हमको ईश्‍वर ने दस बच्‍चे दिये तो दसों को खिलाने का प्रबंध भी तो वहीं करेगा। इस संबंध में आपका क्‍या विचार है?    

     सबसे पहले तो धर्म क्‍या है इस संबंध में थोड़ी सी बात समझ लेनी चाहिए।
      धर्म है मनुष्‍य को अधिकतम आनंद, मंगल और सुख देने की कला।
      मनुष्‍य कैसे अधिकतम रूप में मंगल और सुख को उपलब्‍ध हो, इसका विज्ञान ही धर्म है।
      तो, धर्म ऐसी किसी बात की सलाह नहीं दे सकता, जिससे मनुष्‍य के जीवन में सुख की कमी हो। परमात्‍मा भी वह नहीं चाह सकता, जिससे कि मनुष्‍य का दुःख बढ़े, परमात्‍मा भी चाहेगा कि मनुष्‍य का आनंद बढ़े। लेकिन परमात्‍मा मनुष्‍य को परतंत्र भी नहीं करता क्‍यों?क्‍योंकि परतंत्रता भी दुःख है। इसलिए परमात्‍मा ने मनुष्‍य को पूरी तरह स्‍वतंत्र छोड़ा है। और स्‍वतंत्रता में अनिवार्य रूप से यह भी सम्‍मिलित है कि मनुष्‍य चाहे तो अपने लिए दुःख निर्माण कर ले, तो परमात्‍मा रोकेगा नहीं।
      हम अपना दुःख भी बना सकते है, और सुख भी। हम आनंदमय हो सकते है और परेशान भी। यह सारी स्‍वतंत्रता मनुष्‍य को है। इसलिए यदि हम दुःखी होते है, तो परमात्‍मा जिम्‍मेदार नहीं है। उस दुःख के कारण हमें खोजने पड़ेंगे और बदलने पड़ेंगे।
      मनुष्‍य ने दुःख के कारण बदलने में बहुत विकास किया है। एक बड़ा दुःख था जगत में कि मृत्‍यु की दर बहुत ज्‍यादा थी। दस बच्‍चे पैदा होते थे तो नौ बच्‍चे मर जाते थे। खुद का मरना भी शायद दुखद न होगा। जितना दस बच्‍चो का पैदा होना और नौ कर मर जाना। तो मां बाप बच्‍चों के जन्‍म की करीब-करीब खुशी ही नहीं मना पाते,मरने का दुःख मनाते ही जिंदगी बीत जाती थी।
      तो मनुष्‍य ने निरंतर खोज की और अब यह हालत आ गई है कि दस बच्‍चों में से नौ बच सकते है। और कल दस बच्‍चे भी बचाये जा सकते है। दस बच्‍चे में से नौ बच्‍चे मरते थे तो एक आदमी को अगर तीन बच्‍चे बचाना हो तो कम से कम औसतन तीस बच्‍चे पैदा करने होते थे। तब तीस बच्‍चे पैदा होते तो तीन बच्‍चे बचते थे।
      अब मनुष्‍य ने खोज कर ली है नियमों की और वह इस जगह पहुंच गया है कि दस बच्‍चों में से नौ बच्‍चे जिन्‍दा रहेंगे; दस भी जिंदा रह सकते है। लेकिन, आदत उसकी पुरानी पड़ी हुई है—तीस बच्‍चे पैदा करने की।
      आज परिवार नियोजन जो कह रहा है ‘’दो या तीन बच्‍चे बस’’ यह कोई नई बात नहीं है। इतने बच्‍चे तब भी थे। इससे ज्‍यादा तो कभी होते ही नहीं थे। औसत तो यहीं था, तीन बच्‍चों का। और 27 बच्‍चे मर जाते थे। फिर 27 बच्‍चों के मर जाने से तीन का सुख भी समाप्‍त हो जाता था। तो हमने व्‍यवस्‍था कर ली कि हमने मृत्‍यु दर को कम कर लिया। वह भी हमने परमात्‍मा के नियमों को खोज कर किया। वे नियम भी कोई आदमी के बनाये नियम नहीं है। अगर बच्‍चे मर जाते थे तो वे भी हमारे नियम की नासमझी के कारण मरते थे। हमने नियम खोज लिया है। बच्‍चे ज्‍यादा बचा लेते है। बच्‍चे जब हम ज्‍यादा बचा लेते है तो सवाल खड़ा हुआ कि इतने बच्‍चों के लिए इस पृथ्‍वी पर सुख की व्‍यवस्‍था हम कर पायेंगेइतने बच्‍चों के लिए सुख की व्‍यवस्‍था इस पृथ्‍वी पर नहीं की जा सकती।
      बुद्ध के समय में हिंदुस्‍तान की आबादी दो करोड़ थी। आज हिंदुस्‍तान की आबादी 50 करोड़ के ऊपर है। जहां दो करोड़ खुशहाल हो सकते थे वहां, 50 करोड़ लोग कीड़े मकोड़ों की तरह मरने लगेंगे। और परेशान होने लगेंगे। क्‍योंकि जमीन नहीं बढ़ती। जमीन के उत्‍पादन की क्षमता नहीं बढ़ती। आज पृथ्‍वी पर साढ़े तीन खरब लोग है, यह संख्‍या इतनी ज्‍यादा है कि पृथ्‍वी संपन्‍न नहीं हो सकती। इतनी संख्‍या के होते हुए भी हमने मृत्‍यु दर रो ली है। उस वक्‍त हमने न कहां की भगवान चाहता है कि दस बच्‍चे पैदा हो और नौ मर जाये। अगर हम उस वक्‍त कहते तो भी ठीक था। उस वक्‍त हम राज़ी हो गये। लेकिन अब हम कहते है कि हम बच्‍चे पैदा करेंगे, क्‍योंकि भगवान दस बच्‍चे देता है। यह तर्क बेईमान तर्क है। इसका भगवान से धर्म से कोई संबंध नहीं है। जब हम दस बच्‍चे पैदा कर के नौ मारते थे। तब भी हमें यहीं कहना चाहिए था। हम न बचायेंगे। हम दवा न करेंगे। हम इलाज न करेंगे। हम चिकित्‍सा की व्‍यवस्‍था न करेंगे।
      चिकित्‍सा की व्‍यवस्‍था इलाज,दवाएं सबकी खोज हमने की, जो कि बिलकुल उचित ही है और इसको निश्‍चित ही भगवान आशीर्वाद देगा। क्‍योंकि भगवान बीमारी का आशीर्वाद देता हो, और इतने बच्‍चे पैदा हों और उनमें अधिकतम मर जायें। इसके लिए उसका आशीर्वाद हो, ऐसी बात जो लोग कहते है, वे धार्मिक नहीं हो सकते। वे तो भगवान को भी क्रूर,हत्‍यारा और बुरा सिद्ध कर देते है।
      अगर बच्‍चे मरते थे तो हमारी नासमझी थी। अब हमने समझ बढ़ा ली, अब बच्‍चे बचेंगे। अब हमें दूसरी समझ बढ़ानी पड़ेगी कि कितने बच्‍चे पैदा करें। मृत्‍यु दर जब हमने कम कर ली तो हमें जन्‍म दर भी कर करनी पड़ेगी, अन्‍यथा नौ बच्‍चों के मरने से जितना दुःख होता था, दस बच्‍चों के बचने से उससे कई गुणा ज्‍यादा दुख जमीन पर पैदा हो जायेगा।
      आदमी स्‍वतंत्र है अपने दुःख और सुख के लिए।  
      वह आदमी की बुद्धिमत्ता पर निर्भर है कि वह कितना सुख अर्जित करे या कितना दुःख अर्जित करे।
      तो अब जरूरी हो गया है कि हम कम बच्‍चे पैदा करे। ताकि अनुपात वही रहे जो की पृथ्‍वी संभाल सकती है।
      और बड़े मजे की बात है कि हम भगवान का नाम लेते है तो यह भूल जाते है कि अगर भगवान बच्‍चे पैदा कर रहा है तो बच्‍चों को रोकने की जो कल्‍पना, जो ख्‍याल पैदा हो रहा है,वह कौन पैदा कर रहा है। अगर डाक्‍टर के भीतर से भगवान बच्‍चे को बचा रहा है तो डाक्‍टर के भीतर से उन बच्‍चों को आने से रोक भी रहा है। जो की पृथ्‍वी को कष्‍ट में दुख में डाल देंगे।
      अगर सभी कुछ भगवान का है तो यह परिवार नियोजन का ख्‍याल भी भगवान का ही है।
      और मनुष्‍य की यह आकांशा कह हम अधिकतम सुखी हों, यह भी इच्‍छा भगवान की ही है।
      अधिकतम सुख चाहिए तो परिवार का नियमन चाहिए।
      परिवार नियोजन का और कोई अर्थ नहीं है—इसका अर्थ इतना ही है कि पृथ्‍वी कितने लोगों को सुख दे सकती है। भोजन दे सकती है। उससे ज्‍यादा लोगों को पृथ्‍वी पर खड़े करना, अपने हाथ से पृथ्‍वी को नरक बनाना है।
      पृथ्‍वी स्‍वर्ग बन सकती है, नरक बन सकती है—और यह आदमी के हाथ में है।
      जब तक आदमी ना समझ था तो प्रकृति की अंधी शक्‍तियां काम करती थी। बच्‍चे कितने ही पैदा कर लो, मर जाते थे। बीमारी आती थी, महामारी आती थी। प्‍लेग आता था,मलेरिया आता था, और बच्‍चे विदा हो जाते थे। युद्ध होता। आकाल पड़ता भूकम्‍प होते और बच्‍चे विदा हो जाते थे।
      मनुष्‍य ने प्रकृति की ये सारी विध्‍वंसक शक्‍तियां पर बहुत दूर तक कब्‍जा पा लिया है। प्‍लेग नहीं होगा, महामारी नहीं होगी, मलेरिया नहीं होगा, माता नहीं होगी, आकाल नहीं होगा, और बच्‍चे मरने नहीं देंगे। पिछला अकाल जो बिहार में पडा उसमें अनुमान था कि कोई दो करोड़ लोगों की मृत्‍यु हो जायेगी;लेकिन मरे केवल 40 आदमी। तो आकार भी जिन लोगों को मार सकता था उनको भी हमने सब भांति बचा लिया।
      तो हमने प्रकृति की विध्‍वंसक शक्‍ति पर तो रोक लगा दि और उसकी सृजनात्‍मक शक्ति पर अगर हम उसी अनुपात में रोक न लगाये तो हम प्रकृति का संतुलन नष्‍ट करने वाले सिद्ध होंगे।
      परमात्‍मा के खिलाफ कोई काम हो सकता है तो यह है प्रकृति का संतुलन नष्‍ट हो जाये। तो, जो लोग आज संख्‍या बढ़ा रहे है, जमीन की क्षमता से ज्‍यादा वे लोग परमात्‍मा के खिलाफ काम कर रहे है। क्‍योंकि परमात्‍मा का संतुलन बिगड़ने दे रहे है।    
      प्रकृति का संतुलन बचेगा,अगर प्रकृति की सृजनात्मक शक्‍तियों पर भी उसी अनुपात में रोक लगा दें, जिस अनुपात में विध्‍वंसक शक्‍तियों पर रोक लगा दी है। तो अनुपात वही होगा। और यह सुखद है बजाय इसके कि बच्‍चे पैदा हो और मरे बीमारी में, आकाल में,भूकम्प में, युद्ध में, इससे ज्‍यादा उचित है कि वे पैदा ही न हो। क्‍योंकि पैदा होने के बाद मरना, मारना मरने देना अत्‍यन्‍त दुखद है। न पैदा कना कतई दुखद नहीं है।
      इसलिए मैं यह कतई नहीं मानता हूं कि परिवार नियोजन कोई परमात्‍मा के खिलाफ बात है।
      बल्‍कि मैं तो मानता हूं कि इस वक्‍त जिनके भीतर से परमात्‍मा थोड़ी बहुत आवाज दे रहा है, वे यह कहेंगे कि परिवार नियोजन परमात्‍मा का काम है।
      निश्‍चित ही परमात्‍मा का काम हर युग में बदल जाता है। क्‍योंकि कल जो परमात्‍मा का काम था, जरूरी नहीं कि वह आज भी वहीं हो। युग बदलता है परिस्‍थिति बदल जाती है। तो काम भी बदल जाता है।
      अब सारी परिस्‍थितियां बदल गई है। और आदमी के हाथ में इतनी शक्‍तिआं गयी है कि वह पृथ्‍वी को अत्‍यंत आनंदपूर्ण बना सकता है।
      सिर्फ एक चीज की रूकावट हो गयी है कि संख्‍या अत्‍यधिक हो गयी है। तो पृथ्‍वी नष्‍ट हो जायेगी। और बहुत से प्राणी भी अपनी बहुत संख्‍या करके मर चुके है, आज उनका अवशेष भी नहीं मिलता। मनुष्‍य भी मर सकता है।
      इस समय वहीं मनुष्‍य धार्मिक है, जो मनुष्‍य की संख्‍या कम करने में सहयोगी हो रहा है।
      इस समय परमात्‍मा की दिशा में और मनुष्‍य की सेवा की दिशा में इससे बड़ा कोई कदम नहीं हो सकता है। इसलिए धार्मिक चित तो यही कहेगा। कि परिवार नियोजन हो।
      हां, यह हो सकता है। हम इसे बेईमान लोग है कि जो हमें करना होता है, उसके लिए हम भगवान का सहारा खोज लेते है। और जो हमें नहीं करना होता, उसके लिए हम भगवान के सहारे की बात नहीं करते। जब हमें बीमारी होती है तब हम अस्‍पताल जाते है; तब हम यह नहीं कहते की बीमारी भगवान ने भेजी है। कैंसर टी.बी भगवान ने भेजे है। तब हम डाक्‍टर को खोजते है। और जब डाक्‍टर हमें खोजता हुआ आता है और कहता है इतने बच्‍चे नहीं, तब हम कहते है कि ये तो भगवान के भेजे हुए है।
      तो, हमें इन दो में से कुछ एक तय करना होगा कि बीमारी भी भगवान की भेजी हुई है—मलेरिया भी, प्‍लेग भी, आकाल भी, तब हमें इनमें मरने के लिए तैयार होना चाहिए। और अगर हम कहते है कि भगवान के भेजे हुए नहीं है। हम इनसे लड़ेंगे तो फिर हमें निर्णय लेना होगा कि फिर बच्‍चे भी जो हम कहते है भगवान के भेजे है, उन पर हमें नियंत्रण करना जरूरी है।
      मुझे एक घटना याद है।    
      इथोपिया में बड़ी संख्‍या में बच्‍चे मर जाते है। तो इथोपिया के सम्राट ने एक अमेरिकन डॉक्टरों के मिशन को बुलाया और जांच पड़ताल करवाई कि क्‍या कारण है। तो पता चला कि इथोपिया में जो पानी पीने की व्‍यवस्‍था है, वह गंदी है। और पानी जो है, वे रोगाणुओं से भरा है। और लोग सड़क के किनारे के गंदे डबरों का ही पानी पीते रहते है। उसी में सब मल मूत्र भी बहता रहता है। और लोग उसी का पानी पीते है। वहीं उनकी बीमारियों और मृत्‍यु का बड़ा कारण है। साल भर मेहनत के बाद उनके मिशन ने रिपोट दी और सम्राट को कहा कि पानी पीने की यह व्‍यवस्‍था बंद करवाईये, सड़क के किनारे के गड्ढों का पानी बंद करवाईये और पानी की कोई नयी वैज्ञानिक व्‍यवस्‍था करवाईये।
            तो इथोपिया के सम्राट ने कहा कि मैंने समझ ली आपकी बातें और कारण भी समझ लिया; लेकिन मैं ये नहीं करूंगा। क्‍योंकि आज अगर हम यह इंतजाम कर लें,आदमियों को बीमारी से बचाने का, तो फिर कल इन्‍हीं लोगों को समझाना मुश्‍किल होगा कि परिवार नियोजन करो। इथोपिया के सम्राट ने कहा यह दोहरा झंझट हम न लेंगे। पहले हम इनको यह समझायें कि तुम गंदा पानी मत पीओ। इसमे झंझट झगड़ा होगा। बामुश्‍किल बहुत खर्च करके हम इनको राजी कर पायेंगे। तब जनसंख्‍या बढ़ेगी। तब हम इन्‍हें समझायें गे दुबारा कि तुम बच्‍चे कम पैदा करो। तब उसने कहा, इससे यह जो हो रहा है, वहीं ठीक हो रहा है।
      मैं भी समझता हूं कि यदि भगवान पर छोड़ना है तो फिर इथोपिया का सम्राट ठीक कहता है। तो फिर हमें भी इसी के लिए राज़ी होना चाहिए। अस्‍पताल बंद, लोग गंदा पानी पिये, बीमारी में रहें—फिर हम सब भगवान पर छोड़ दे—जितने जियें। इतना जरूर कहे देता हूं कि भगवान के हाथ में छोड़कर इतने आदमी दुनिया में कभी न बचे थे। जितने आदमी ने अपने हाथ में लेकर बचाये। इतने आदमी भगवान के हाथ में बचते।
      इसलिए जब हमने विध्‍वंस की शक्‍तियों पर रोक लगा दी तो हमें सृजन की शक्‍तियों पर भी रोक लगाने की तैयारी दिखानी चाहिए। और इस तैयारी में परमात्‍मा का कोई विरोध नहीं हो रहा है। और न इसमें कोई धर्म का विरोध हो रहा है। क्‍योंकि धर्म है ही इसी लिए कि मनुष्‍य अधिकतम सुखी कैसे हो इसका इंतजाम इसकी व्‍यवस्‍था करनी है।

 -ओशो
संभोग से समाधि की ओर
प्रवचन—9